मैं राह चलते एक पत्थर मार रहा था
मैं पत्थर के पीछे वो मेरे आगे था
ऐसा लग रहा था मैं मद मस्त
आवारा की तरह हरकते कर रहा था
मैं अपनी धुन मे मस्त मुसकुराता हुआ बढ़ रहा था
मुझे क्या पता था वो मेरे मंज़िल तक वो पत्थर साथ देता रहेगा
वो तो एक बस खेल लग रहा था पर बहुत मज़ा आरहा था
पर उस पत्थर के उस खेल मे ऐसा कुछ नहीं था जो मुझे इतनी खुशी दे रहा था
वो तो बस मेरे दिमाग मे चल रहे उन यादों से दूर कर रहा था
जिनकी मुझे याद दिला रहा था
क्या पल भर की खुशी खुशी नहीं होती ?
हा छोटी छोटी खुशिया से ही हमे बड़ी खुशिया देती है
और मैं इन बड़ी खुशिया पाने के लिए ऐसी आवारगी करने मे कोई बैर और देर नहीं
और एक दिनभर की थकान मिटाने के लिए हल्की मुस्कान ही काफी है |
देवेंद्र गोरे