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Wednesday, June 22, 2016

ये जो सपने है न सपने...

ये जो सपने है,
उन्हें बुनने का अलग मज़ा है,
ये कभी बिखरते है,
कभी चिड़चिड़े कर देते है,
तो कभी उत्साह से भी भरते है,
ये उतार चढ़ाव का एक पहिया है,
जिसे धक्का हम खुद देते है,
इन्हें हम सिर्फ सोचकर नहीं पाते,
मेहनत कर पाना चाहते है,
ये जो सपने है न सपने...
उन्हें धूमिल होने से बचाना है तो....
सपनों की दुनिया से उठकर मेहनत करना जरुरी है। 

$देवेन्द्र गोरे$

Wednesday, October 14, 2015

मैं शब्दो का धनी नहीं!

ये शब्द भंडार जो मेरे मगज मे छुपे है, इन्हे कोई हिलाकर निकाले कोई,
कहीं सही वक्त के इंतेजार में वक्त गुज़र न जाए, ये जो पर्दा है खुन्नस का हटाए कोई।

ये आसमान को ताके एड़िया घीस रहा वो, कंधे पे झोला टांगे कोई,
वो आँसुओ को छुपाए मौका तलाश रहा, आंखो से चश्मा हटाए कोई।

वो दो वक्त की रोटी का इंतेजाम कर रहा, किसी चमत्कार का भूका है कोई,
लिख रहा वो वहीं जो है सही, पर क्या थामेगा उसका हाथ कोई।

पल भर में एहसासों की पुड़िया संभाले, कब तक चुप रहेगा कोई,
कभी न कभी कहीं न कहीं, एक दिन तालियो की गूँज सुनेगा कोई।

वो आँखों में नमी लिए खड़ा होगा, होठों पर मुस्कान कोई,
जीत गया वो जग सारा तो, याद करेगा संघर्ष कोई।
- देवेंद्र गोरे

Friday, January 2, 2015

मैं तो बस लिखना चाहता हूँ ....!!

ये क्या लिखा है ?
ये सच लिखा है,
किस ओर ये खत लिखा है
पढ़ना चाहता हूँ .
पढ़ाना चाहता हूँ ,
मैं तो बस लिखना चाहता हूँ !

क्या सोचती है ये दुनिया,
मैं ये न सोचता हूँ ,
क्या सुख क्या दुख.
क्या अमीरी क्या गरीबी,
सबकी बात कहना चाहता हूँ,
मैं तो बस लिखना चाहता हूँ !

पल में खुशी ,
पल में हँसी ,
पल में रोना ,
पल में खोना .
सारे रंग पिरोना चाहता हुँ,
मैं तो बस लिखना चाहता हूँ !

ये धर्म क्या अधर्म क्या .
मजहब की लड़ाई से हटना चाहता हूँ ,
दुर रखो मूूझे इस मंजर से ,
मैं तो बस लिखना चाहता हूँ !


एक दिन वो आयेगा ,
ख्वाब पूरा हो जायेगा ,
मैं भी दूनिया को कुछ दिखाना चाहता हूँ,
मैं तो बस लिखना चाहता हूँ !

$ देवेन्द्र गोरे $


Sunday, September 14, 2014

मैं हिन्दी हू


मैं किसी का नाम जो हू  
किसी के नफरत का पैगाम जो हू
मैं किसी का  सम्मान जो हू
उन नगमो का अल्फ़ाज़ जो हू
मैं किसी की बिंदी हू
मैं तुम्हारी हिन्दी हू

मैं शब्दो का एहसास जो हू
मैं दिल की आवाज़ जो हू
सुख-दुख का हर राग जो हू
खुशियो की एक आवाज़ जो हू
जोश का वो  अंगार जो हू
जिसमे लगे वो बिन्दु हू
मैं तुम्हारी हिन्दी हू


किताबों मे कही खोयी हू
 लिखने से कतराती हू
अब तो अंग्रेजी की बिंदी हू
आज भी गर्व की बिन्दी हू  
मैं तुम्हारी हिन्दी हू


 :- देवेंद्र गोरे 

Saturday, September 6, 2014

गज़ल - 2

आंखो मे कोई ख़्वाब  सुनहरा नहीं आता
इस झील पर अब कोई शक्स नहीं आता

बहुत दिनो से दिल मे तमन्नाए सजा राखी है
इस घर मे किसी का रिश्ता नहीं आता

मैं बस मे बैठा हुआ ये सोच रहा हू
इस दौर में आसानी से पैसा नहीं आता

वो मजहब का ज्ञान बाटने निकले है
जिन्हे अपने धर्म का कोई श्लोक नहीं आता

बस तुम्हारी मोहब्बत मे चला आया हू

यूँ सबके बुला लेने से देवेंद्र नहीं आता 


Saturday, August 9, 2014

स्कूल का रक्षाबंधन !



रक्षाबंधन आता हैं खुशियाँ लाता हैं,
भाई और बहन के प्यार को दर्शाता हैं,
पर ये स्तिथि घर पर होती थी,
स्कूल की रक्षाबंधन कहर बरपाती थी,

रक्षाबंधन करीब आते ही हर लड़का डरने लगता था,
रक्षाबंधन आने तक पल-पल अन्दर ही अन्दर मरने लगता था,
जिस लड़की को मन ही मन पसंद करते थे, हमसे दूर भागती थी ,
हाथ में लिए रक्षाबंधन, सपनो में आने लगती थी,

स्कूल में कर्फ्यू का सा माहौल होता था ,
लड़की के पास से गुज़र भर जाने से दिल रोता था ,
डरे सहमे लड़के रहते थे इसी आस में,
भगवान् इस बार बचा लो,  बहन बनाने से |

रक्षाबंधन से दो दिन पहले छुट्टी के बहाने स्कूल नहीं जाते थे ,
जो समझदार होते हैं वो स्कूल चले जाते थे,
जो आ जाते थे स्कूल,
वो नए नए भाई बन कर पछताते थे I
- 
                :-   देवेंद्र गोरे


Thursday, June 5, 2014

गज़ल ...!

हर मोड़ पर साथ दिया तुमने,य़े बदलाव क्यों है,
तुम ज़िन्दगी का मकसद ,फिर ये ठहराव क्यों है||

तलब रहती है अक्सर मिलने कि, ये दूरीया क्यों है ,
मिलते है हम अब भी अक्सर फिर ये अलगाव क्यों है||

उन्होने कहा कैसे हो तुम मैंने कहा तुम्हे फिक्र क्यों है ,
दिल में कहीं दुआओ का समुन्दर, लफ्ज़ो पर शिकायत क्यों है||

रिश्तो कि डोर इतनी कमजोर नहीं, फिर ये गांठ क्यों है,
प्यार का पैगाम लिये खड़ा हूं मैं, फिर ये खामोशी क्यों है ||

हमसे कोई पुछे ये चेहरे पर मुस्कान क्यों है,

और मैं मुस्कुराकर कह दूं ये प्यार क्यों है ||



Wednesday, October 9, 2013

हा छोटी छोटी खुशिया से ही हमे बड़ी खुशिया देती है

मैं राह चलते एक पत्थर मार रहा था
मैं पत्थर के पीछे वो मेरे आगे था
ऐसा लग रहा था मैं मद मस्त
आवारा की तरह हरकते कर रहा था
मैं अपनी धुन मे मस्त मुसकुराता हुआ बढ़ रहा था
मुझे क्या पता था वो मेरे मंज़िल तक वो पत्थर साथ देता रहेगा
वो तो एक बस खेल लग रहा था पर बहुत मज़ा आरहा था
पर उस पत्थर के उस खेल मे ऐसा कुछ नहीं था जो मुझे इतनी खुशी दे रहा था
वो तो बस मेरे दिमाग मे चल रहे उन यादों से दूर कर रहा था
जिनकी मुझे याद दिला रहा था
क्या पल भर की खुशी खुशी नहीं होती ?
हा छोटी छोटी खुशिया से ही हमे बड़ी खुशिया देती है
और मैं इन बड़ी खुशिया पाने के लिए ऐसी आवारगी करने मे कोई बैर और देर नहीं
और एक दिनभर की थकान मिटाने के लिए हल्की मुस्कान ही काफी है |


देवेंद्र गोरे

Wednesday, August 14, 2013

जिंदगी है छोटी, हर पल में खुश हू…!! :)

जिंदगी है छोटी, हर पल में खुश हू…

आज गाड़ी में जाने का वक्त नहीं है,
दो कदम चल के ही खुश हु…

आज किसी ए साथ नहीं है,
लैपटॉप पे मूवी देख के ही खुश हू…

आज कोई नाराज़ है,
उसके इस अंदाज़ में भी खुश हु…

जिसको देख नहीं सकता,
उसकी आवाज़ में हे खुश हू…

जिसको पा नहीं सकता,
उसकी याद में ही खुश हु…

बिता हुआ कल जा चूका है,
उसकी मीठी याद में खुश हू…

हस्ते हस्ते ये पल बीतेंगे,
ये सोच के ही खुश हू..

जिंदगी है छोटी पर हर पल में खुश हू..



अगर ये दिल को छू जाये तो कमेन्ट करना वरना में बिना कमेन्ट के भी खुश हू..   

- देवेंद्र गोरे !

Monday, July 29, 2013

ब्लॉग .......!!

तुम्हारा घर तुम्हारा  ब्लॉग,


मेरा घर मेरा ब्लॉग !


तुम मेरे घर आओ


मैं तुम्हारे घर आवउ


तुम मेरे पिछलग्गू (फालोअर) बनू


मैं तुम्हारा पिछलग्गू बनूँ;


यानि तुम मेरी पीठ खुजाओ 


मैं तुम्हारी पीठ खुजाऊँ !


ब्लॉगर ब्लॉगर भाई भाई 


ट्विटर ब्लॉगर लिंक बनाई !! 
देवेन्द्र गोरे 

Friday, June 21, 2013

अपने दर्द का बयां न
कभी न करना

बन जायेगा तमाशा।

अपनी ही गमों ने लोग हैरान हैं

अपनों की करतूतों से परेशान है

कर नहीं सकते किसी की

पूरी आशा।

किसी इंसान को

कुदरत हीरे की तरह तराश दे

अलग बात है

इंसानों ने कभी नहीं तराशा।
Devendra

मंज़िल मेरी फिर दूर नही....

मैं राही उन रास्तो का हूँ
जिन पर मेरा हक़ नही
एक सफर तेरे साथ हो तो
मंज़िल मेरी फिर दूर नही
ख्वाबो को सच करने का
हौसला मुझमे नही
एक बार तु मेरा हौसला बनजा
मंज़िल मेरी फिर दूर नही
समंदर जितना है गहरा
उतना गहरा है मेरा प्यार
आ चल मेरी कश्ति बनजा
मंज़िल मेरी फिर दूर नही
आसमॉ की आशा हैं
पंख लगाकर उड्ना है
आ चल तू बनजा पंख मेरे
मंज़िल मेरी फिर दूर नही
एक सफर मैं साथ चलू
तेरे कदमो के बाद चलू
तेरी परछाई बान जाउ अगर
मंज़िल मेरी फिर दूर नही
-: देवेंद्र गोर

Sunday, February 17, 2013

मंज़िल मेरी फिर दूर नही ....!!!

मैं राही उन रास्तो का हूँ 
जिन पर मेरा हक़ नही 
एक सफर तेरे साथ हो तो 
मंज़िल मेरी फिर दूर नही

ख्वाबो को सच करने का
हौसला मुझमे नही
एक बार तु मेरा हौसला बनजा
मंज़िल मेरी फिर दूर नही

समंदर जितना है गहरा
उतना गहरा है मेरा प्यार
आ चल मेरी कश्ति बनजा
मंज़िल मेरी फिर दूर नही

आसमॉ की आशा हैं
पंख लगाकर उड्ना है
आ चल तू बनजा पंख मेरे
मंज़िल मेरी फिर दूर नही

एक सफर मैं साथ चलू
तेरे कदमो के बाद चलू
तेरी परछाई बान जाउ अगर
मंज़िल मेरी फिर दूर नही

-: देवेंद्र गोरे


Sunday, May 20, 2012

ज़िन्दगी तो सभी जीते है , कुछ लोगो के अंदाज़ निराले होते है ...!!


ज़िन्दगी तो सभी जीते है ,
कुछ लोगो के अंदाज़ निराले होते है ,

जिनके हाथ नहीं होते वे पैरो से काम चलाते है ,
खुश तो ये भी रहते है ,
पर इनके जीने के अंदाज़ निराले होते है ... !!

जिनके पैर नहीं होते वे हाथो से करिश्मा कर दिखाते है ,
होसलों से ज़िन्दगी जिया करते है ,
आसूओ  से कुछ नहीं होता इनको ,
पर इनके जीने का अंदाज़ निराले होते है ...!!

आँखों से देख नहीं सकते ,पर एहसासों में जिया करते है ,मंजिल तो इन्हें भी मिलती है ,पर इनके जीने के अंदाज़ निराले होते है ... !!
हर जंग जीतने का ज़ज्बा है ,  फिर दुनिया में छा जाते है ,कल की छोड़ आज का जीना जीते है ,मंजिल तो इन्हें भी मिलती है ,पर इनके जीने के अंदाज़ निराले होते है ... !!
देवेन्द्र गोरे   

Monday, May 7, 2012

मैँ मूसाफिर अकेला .............!!!

मैँ मूसाफिर अकेला मंज़िल ढूँढने चला था ,
जिस मंज़िल कि तलाश मेँ मैँ था वहा एक मुसाफिर और था,
एक आकांक्षा थी छूलूंगा आसमान 
पर आसमां भी परिँदो से घिरा हुआ था ,
मैँ ठहरा सहमा क्या करु,
एक मुसाफिर का हाथ सामने आया ,
मैँने पुछा क्या मंज़िल मिलना आसान है?
मुसाफिर ने बताया ,
उड़ना तो हर परिँदे का काम है ,
किस पंछी को कहा जाना है,
परेशानीया करती मजबूर है,
तू मूड़ कर ना देख अगर कुछ हाथ ना लगे,
एक दिन तू आसमाँ मेँ उड़ता हूँआ अपने आप को पायेगा और नीचे लोग तूझे उड़ता देख खुश हो जायेँगे :-)

देवेन्द्र गोरे ।